कौव्वों पर भारी संकट, उत्तराखंड में 'घुघुतिया' त्योहार पर बंदरों ने लगाया भोग
- उत्तराखंड में घुघुतिया पर लोगों ने भोग लगाने के लिए कौव्वों को बुलाया तो बंदर चले आए. कई जगहों पर बंदर ही भोग खा गए. कोव्वों की संख्या शहर में कम होने लगी है. पक्षी विशेषज्ञ मानते हैं कि शिकारी पक्षी माने जाने वाले गिद्ध के बाद अब कव्वे भारी संकट में हैं.

देहरादून. उत्तराखंड में मकर संक्रांति को 'घुघुतिया' के तौर पर धूमधाम से मनाया जाता है. एक दिन पहले आटे को गुड़ मिले पानी में गूंथा जाता है. फिर घुघुती बनाई जाती है. इन सबको एक माला में पिरोया जाता है. इसे पहनकर बच्चे अगले दिन घुघुतिया पर सुबह नहा-धोकर कौव्वों को खाने को बुलाते हैं, लेकिन शुक्रवार को घुघुतिया पर लोगों ने भोग लगाने के लिए कौव्वों को बुलाया तो बंदर चले आए. कई जगहों पर बंदर ही भोग खा गए. दरअसल कोव्वों की संख्या शहर में कम होने लगी है. पक्षी विशेषज्ञ मानते हैं कि शिकारी पक्षी माने जाने वाले गिद्ध के बाद अब कव्वे भारी संकट में हैं.
पर्यावरणविदों का मानना है ज्यादा चिंताजनक बात ये है कि बीज खाने वाले संकटग्रस्त पक्षियों को बचाने के लिए तो पहल की जा रही है लेकिन शिकारी पक्षियों की तरफ किसी का ध्यान नहीं है. बीते कुछ सालों से कव्वों की कमी से अनुष्ठान पूरा नहीं हो पा रहा है. इसके पीछे कौव्वों की गिरती संख्या बड़ी वजह है.
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कौव्वों की संख्या सबसे ज्यादा गिरी
सेंटर फॉर इकोलॉजी डेवलपमेंट एंड रिसर्च देहरादून में डायरेक्टर डॉ. विशाल सिंह कहते हैं ये संकट पिछले पांच दशकों से पर्यावरण, मौसम और हमारे रहन-सहन में आ रहे बदलावों की वजह से उपजा है. यही वजह है पिछले एक दशक में ही पक्षियों की कई प्रजातियां गायब हो गई हैं. पक्षी विशेषज्ञों के अनुसार कौव्वे जनवरी से मार्च अंत तक अंडे देते हैं. लेकिन बीते दशकों इन तीन महीनों के मौसम में बड़ा बदलावा आया है. कभी अत्यधिक ठंड तो कभी तेज गर्मी हो रही है. इससे कौव्वों के 90 फीसदी तक अंडे बर्बाद हो रहे हैं. इस कारण कौव्वों की संख्या सबसे ज्यादा गिरी है. इसके अलावा जंगल कटने से भी संकट बढ़ा है.
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