VIDEO: कविराज कुमार विश्वास की ये शानदार कविताएं आपका मन मोह लेंगी, जरूर सुनिए
- डाॅ. कुमार विश्वास जिनकी एक झलक पाने को लोग दीवाने है. जिनकी कविताओं को लाखों लोग बार-बार देखा करते हैं. जिन्होंने भारतीयों कवियों के लिए सोच बदल दी. कवि से सियासत और सियासत से फिर कवि गलियारों में लौटे कुमार विश्वास की इन कविताओं को जरूर सुनें.
कुमार विश्वास जिनकी कविताओं के लोग दीवानें हैं. नौजवान तो इस कवि को बहुत पसंद करते हैं शायद इसलिए वे युवाओं के बीच आइकन बन गए हैं. वो जहां जाते हैं युवाओं की भीड़ खींची चली जाती है. जब वो माइक उठाते हैं तो लोग झूम उठते हैं. कवि से सियासत और सियासत से फिर से कविताओं के बीच लौटे डाॅ. कुमार विश्वास सिर्फ मुशायरे और गोष्ठियों के मंच पर ही नहीं सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर भी बेहद लोकप्रिय हैं.
इन सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर डले उनके वीडियो पर लाखों व्यूज थोड़ी ही देर में आ जाते हैं. उनके वीडियो को हर दिन लाखों लोग देखते हैं. कोई उनके तंज और कटाक्ष को पसंद करता है तो कोई उनकी कविताओं पर झूमता है. कुमार विश्वास अपने फैंस के लिए खुद सोशल मीडिया पर एक्टिव रहते हैं.
कुमार विश्वास की कविताओं की तीने किताबें छप चुकी हैं. जिसमें सबसे पहली किताब एक पागली लड़की के बिन जो 1996 में प्रकाशित हुई थी. इसके बाद 2007 में उनकी किताब कोई दीवाना समझता है छपी. जिसने लोकप्रियता को आसमां पर पहुंचा दिया. वो जहां जाते हैं उनसे इस कविता की फरमाइश जरूर होती है. वो शुरू करते हैं, कोई दीवाना समझता है, कोई पागल समझता है और लोग उनके साथ इस कविता को गुनगुनाने लगते हैं. उनकी तीसरी किताब 2019 में फिर मेरी याद प्रकाशित हुई. जिसको काफी पसंद किया जा रहा है.
डाॅ. कुमार विश्वास कवि से सियासत के गलियारों तक आए. वे अन्ना हजारे के आंदोलन से जुड़े और फिर अरविंद केजरीवाल के साथ दिल्ली में आप की सरकार बनाई. कई सालों के साथ के बाद कुमार विश्वास अब सियासत की गलियों से दूर हैं. मगर जरूरी मुद्दों पर अब भी बोलते हैं. सरकार की आलोचना, तंज, कटाक्ष और सलाह देते रहते हैं. ये कुमार विश्वास का कवि मन से थोड़ा अलग लेकिन जरूरी रूप है.
डाॅ. कुमार विश्वास को 1994 में डॉ. कुंवर बाइचैन काव्य सम्मान अवाम पुरुस्कार समिति ने उन्हें कवि कुमार पुरस्कार से सम्मानित किया. 2004 में उन्हें उन्नाव में साहित्य भारती द्वारा डॉ. सुमन अलंकार पुरस्कार मिला. 2006 में उन्हें हिंदी-उर्दू पुरस्कार समिति द्वारा साहित्यश्री पुरस्कार दिया गया. 2010 में उन्हें बदायूं में डॉ. उर्मिलेश जन चेतना समिति द्वारा डॉ. उर्मिलेश “गीत श्री” सम्मान दिया गया. कोई दीवाना समझता है, कोई पागल समझता है इसके अलावा भी डाॅ. कुमार विश्वास की कई बेहतरीन कविताएं हैं. आइए कुमार विश्वास के कवि मन की ऐसी ही कुछ कविताओं के बारे में जानते हैं.
1. हार गया तन-मन पुकार कर तुम्हें
हार गया तन-मन पुकार कर तुम्हें
कितने एकाकी हैं प्यार कर तुम्हें
जिस पल हल्दी लेपी होगी तन पर माँ ने
जिस पल सखियों ने सौंपी होंगीं सौगातें
ढोलक की थापों में, घुँघरू की रुनझुन में
घुल कर फैली होंगीं घर में प्यारी बातें
उस पल मीठी-सी धुन
घर के आँगन में सुन
रोये मन-चैसर पर हार कर तुम्हें
कितने एकाकी हैं प्यार कर तुम्हें
कल तक जो हमको-तुमको मिलवा देती थीं
उन सखियों के प्रश्नों ने टोका तो होगा
साजन की अंजुरि पर, अंजुरि काँपी होगी
मेरी सुधियों ने रस्ता रोका तो होगा
उस पल सोचा मन में
आगे अब जीवन में
जी लेंगे हँसकर, बिसार कर तुम्हें
कितने एकाकी हैं प्यार कर तुम्हें
कल तक मेरे जिन गीतों को तुम अपना कहती थीं
अखबारों मेें पढ़कर कैसा लगता होगा
सावन को रातों में, साजन की बाँहों में
तन तो सोता होगा पर मन जगता होगा
उस पल के जीने में
आँसू पी लेने में
मरते हैं, मन ही मन, मार कर तुम्हें
कितने एकाकी हैं प्यार कर तुम्हें
2. हार गया तन-मन पुकार कर तुम्हें
मैं तुम्हें ढूँढने स्वर्ग के द्वार तक
रोज आता रहा, रोज जाता रहा
तुम गजल बन गई, गीत में ढल गई
मंच से में तुम्हें गुनगुनाता रहा
जिन्दगी के सभी रास्ते एक थे
सबकी मंजिल तुम्हारे चयन तक गई
अप्रकाशित रहे पीर के उपनिषद्
मन की गोपन कथाएँ नयन तक रहीं
प्राण के पृष्ठ पर गीत की अल्पना
तुम मिटाती रही मैं बनाता रहा
तुम गजल बन गई, गीत में ढल गई
मंच से में तुम्हें गुनगुनाता रहा
एक खामोश हलचल बनी जिन्दगी
गहरा ठहरा जल बनी जिन्दगी
तुम बिना जैसे महलों में बीता हुआ
उर्मिला का कोई पल बनी जिन्दगी
दृष्टि आकाश में आस का एक दिया
तुम बुझती रही, मैं जलाता रहा
तुम गजल बन गई, गीत में ढल गई
मंच से में तुम्हें गुनगुनाता रहा
तुम चली गई तो मन अकेला हुआ
सारी यादों का पुरजोर मेला हुआ
कब भी लौटी नई खुशबुओं में सजी
मन भी बेला हुआ तन भी बेला हुआ
खुद के आघात पर व्यर्थ की बात पर
रूठती तुम रही मैं मानता रहा
तुम गजल बन गई, गीत में ढल गई
मंच से में तुम्हें गुनगुनाता रहा
मैं तुम्हें ढूँढने स्वर्ग के द्वार तक
रोज आता रहा, रोज जाता रहा
3. फिर मिरी याद आ रही होगी
फिर मिरी याद आ रही होगी
फिर वो दीपक बुझा रही होगी
फिर मिरे फेसबुक पे आ कर वो
ख़ुद को बैनर बना रही होगी
अपने बेटे का चूम कर माथा
मुझ को टीका लगा रही होगी
फिर उसी ने उसे छुआ होगा
फिर उसी से निभा रही होगी
जिस्म चादर सा बिछ गया होगा
रूह सिलवट हटा रही होगी
फिर से इक रात कट गई होगी
फिर से इक रात आ रही होगी
4. मन तुम्हारा
मन तुम्हारा !
हो गया
तो हो गया .....
एक तुम थे
जो सदा से अर्चना के गीत थे,
एक हम थे
जो सदा से धार के विपरीत थे.
ग्राम्य-स्वर
कैसे कठिन आलाप नियमित साध पाता,
द्वार पर संकल्प के
लखकर पराजय कंपकंपाता.
क्षीण सा स्वर
खो गया तो,खो गया
मन तुम्हारा!
हो गया
तो हो गया..........
लाख नाचे
मोर सा मन लाख तन का सीप तरसे,
कौन जाने
किस घड़ी तपती धरा पर मेघ बरसे,
अनसुने चाहे रहे
तन के सजग शहरी बुलावे,
प्राण में उतरे मगर
जब सृष्टि के आदिम छलावे.
बीज बादल
बो गया तो,बो गया,
मन तुम्हारा!
हो गया
तो हो गया........
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