इंद्र की पूजा की जगह ब्रजवासियों ने शुरू की थी गोवर्धन पूजा, जानिए क्या है इतिहास

Mithilesh Kumar Patel, Last updated: Thu, 4th Nov 2021, 7:41 PM IST
  • मथुरा के ब्रज में दिवाली के दूसरे दिन मनाई जाने वाली गोर्वधन पूजा अपने आप में बहुत खास है. सालों से चली आ रही यह पारंपारिक पूजा आज ब्रज के आलावा देश के कई हिस्सों में बड़े हर्षोल्लास से मनाई जाती है. कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा में मनायी जाने वाली इस गोवर्धन पूजा की शुरुआत ऐसे हुई थी.
प्रतीकात्मक फोटो

गोर्वधन पूजा हर साल कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा यानी दीपावली के दूसरे दिन देश के कई हिस्सों में बड़े हर्षोल्लास से मनाई जाती है. इस साल यह पूजा शुक्रवार 5 नवंबर को है. गोर्वधन पूजा के पीछे की मान्यता ये है कि द्वापर युग में ब्रज के लोगों द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की पूजा से इसकी शुरूआत हुई थी. कहावत है कि ब्रजवासियों ने गोवर्धन पूजा की शुरुआत देवराज इंद्र की पूजा के स्थान पर किया गया था. इससे नाराज होकर भगवान इंद्र ने लगातार 7 दिनों तक पूरे ब्रज मंडल में भारी बारिश करवाई थी जिससे पूरा ब्रज पानी से लबालब डूब गया था. ब्रज के लोगों को मुश्किलों में देख तब भगवान श्रीकृष्ण ने ग्वाल-वालों के साथ मिलकर पूरे गोर्वधन पर्वत अपनी तर्जनी अंगुली पर उठा लिया. और इसी सप्तकोसी परिधि वाले विशालकाय गोर्वधन पर्वत के नीचे सभी ब्रजवासियों ने शरण ली थी. मथुरा के ब्रज में आज भीइस पूजा का खास महत्व है.

भगवान श्रीकृष्ण के इस अलौकिक रूप को देखकर देवराज इंद्र ने उनके सामने घूटने टेक लिए और खुद अपने द्वारा किए गए कृत्यों के लिए क्षमा याचना मांगी. कहा जाता है कि तर्जनी अंगुली पर उठाए खड़े भगवान विष्णु के इस भव्य रूपी गिरिराज गोर्वधन का पंचामृत से अभिषेक करके भगवान श्रीकृष्ण ने खुद उन्हें 56 या 108 तरह के पकवान से भोग लगवाया और विधिवत उनकी पूजा-अर्चना भी की थी. तब से लोग उन्हें एक और नाम गोर्वधनधारी (गिरधारी) से भी जानने लगे थे.

गोवर्धन पूजा

सालों से चली आ रही यह परंपरा हर साल दीपावली के दूसरे दिन यानि कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को पूरे ब्रज में गोर्वधन पूजा मनाया जाता है. पूरी तरह से प्रकृति की उपासना पर आधारित यह गोवर्धन पूजा एक खास त्योहार की तरह मनाया जाता है. इस पूजा में गौ, पृथ्वी और वन सम्पदा का इस्तेमाल किया जाता है. सात कोस में फैला विष्णु रूपी गिरिराज गोवर्धन पर्वत उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले में स्थित है. यह मनोहरी तीर्थ स्थल गोवर्धन जिले के मुख्यालय से 23 किलोमीटर दूर बसा हुआ है.

इस पूजा की तैयारियां विजयादशमी से ही शुरू हो जाती है. गोवर्धन कस्बे की महिलाएं गाय के गोबर से गिरिराज गोर्वधन के जैसे खुद अपने हाथों से आकृति बनाती हैं. और उसी आकृति की टुंडी में बड़ा सा छेद बनाकर उसमें दूध, शहद, खील व बताशे आदि भरती हैं. हाथ से बनाए गए गोर्वधन आकृति के चारों ओर गाय बछड़ों को दर्शाया जाता है. और इस आकृति के मध्य में भगवान श्रीकृष्ण व पांचों पांडवों की आकृति भी बनाई जाती है. साथ ही इस आकृति के निकट गुजरिया, ग्वालिनि, मटकी, रई, चक्की आदि भी बनाई जाती है. कांस की सीकें और कपास व वृक्षों की पतली टहनियां आदि लगाकर गोवर्धन की आकृति को पर्वत के समान रूप दिया जाता है.

अन्नकूट महोत्सव

इस दिन ब्रज के लोग अपने-अपने घरों में गिरिराज गोर्वधन को भव्य रूप से सजाते हैं. अन्नकूट के दिन राजभोग समर्पण के बाद गिरीराज गोर्वधन की पूजा-अर्चना की जाती है. इसके बाद उन्हें 56 या 108 तरह के पकवान से भोग कराया जाता है. दिवाली के दूसरे दिन यानी कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा में सभी मंदिरों व घरों में अन्नकूट महोत्सव मनाया जाता है. और इस खास मौके पर भजन संध्या, नयनाभिराम नृत्य एवं लोक गायन आदि भी की जाती है.

गिरीराज गोर्वधन पूजा और अन्नकूट महोत्सव दोनों भगवान श्रीकृष्ण की अलौकिक लीला से जुड़ा हुआ है. इसमें एक ओर गिरिराज गोर्वधन के रूप को पूजा जाता है तो दूसरी ओर नंदनंदन के रूप में ग्वाल वालों के साथ गाते-बजाते हुए गिरिराज गोर्वधन की पूजा-अर्चना की जाती है. ब्रजवासियों के आलावा आजकल इस त्योहार को देश के बाकी हिस्सों में भी बड़े हर्षोल्लास से मनाया जाता है.

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